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MARITIME BOUNDARY OF INDIA

 Maritime boundary of India:-

Countries also get economic contribution from marine resources.  The right of each country is not limited to the sea coast (east and west coast) only. Since there are many living and abiotic resources in the sea.  Each country has been given the right to a certain distance of the coastline to exploit these resources. 


 An Act has been made under it which is as follows: -

Marine Areas Act, 1976: 

The Maritime Zone Act of India was passed on 25 August 1976.  This Act came into force on 15 January 1977. Which brought the area of 2.01 square kilometers of the entire exclusive economic zone into national jurisdiction.

UNCLOS- 1982
United nation convension of the low of sea.

In 1982, an agreement was signed by the United Nations to determine the maritime boundary of each country and give them rights.  This was called the United Nations Treaty.  Under this, India's maritime boundary has been determined.


Ground line:-

These boundaries begin at the baseline rather than from the coast.  Generally, the mainland along the coast of India is called the baseline.  The oceanic water between the coast and the baseline is called internal water.

The division of the maritime boundary of India:-

It is divided into three parts:-


1. Teritorial sea


2. Contiguous zone


3. Exclusive economic zone





Teritorial Sea :-

The area up to 12 nautical miles from the baseline is called the territorial sea boundary.  India has the right to exploit its entire resources.


Contiguous zone:-

The area up to 24 nautical miles from the baseline is called the enclosed zone or uninterrupted circle.  Under this, India has a financial right to collect customs duties.


Exclusive economic zone:- 

The area up to 200 nautical miles from the baseline is called the Exclusive Economic Zone.  Under this, India has the right to construct new islands up to 200 nautical miles, scientific research etc.



Translate in hindi:-

भारत की समुद्री सीमा:-

देशों को आर्थिक योगदान समुद्री संसाधनों से भी प्राप्त होता है। प्रत्येक देश का अधिकार केवल समुद्री तट (पूर्वी व पश्चिमी तट) तक सीमित नहीं होता।चूँकि समुद्र में अनेक जीवित व अजैविक संसाधन होते हैं। इन संसाधनों के दोहन के लिए प्रत्येक देश को समुद्र तट की निश्चित दूरी तक का अधिकार दिया गया है। इसके अंतर्गत एक अधिनियम बनाया गया है जो निम्न है:-


समुद्री क्षेत्र अधिनियम, 1976:-

भारत का समुद्री क्षेत्र अधिनियम 25 अगस्त 1976 को पारित हुआ। यह अधिनियम 15 जनवरी 1977 को लागू हुआ है।जिसमें 2.01 वर्ग किलोमीटर की संपूर्ण अनन्य आर्थिक क्षेत्र के क्षेत्र को राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार में लाया गया।


UNCLOS-1982
United Nation convension of the low of sea

यूनाइटेड नेशन  द्वारा सन्  1982 में प्रत्येक देश की समुद्री सीमा का निर्धारण व उनको अधिकार देने के लिए एक समझौता हुआ। इसे संयुक्त राष्ट्र संधि कहा गया। इसके अंतर्गत भारत की समुद्री सीमा का निर्धारण किया गया है।


आधार रेखा:-

इन सीमाओं का प्रारंभ तट से ना होकर आधार रेखा से होता है। सामान्यतः भारत के तट से लगी मुख्य भूमि को आधार रेखा कहते हैं । तट और आधार रेखा के मध्य के सागरीय जल को आंतरिक जल कहते हैं।


भारत की समुद्री सीमा का विभाजन:-

इसे तीन भागों में विभाजित किया गया है:-


1. प्रादेशिक समुद्री सीमा / क्षेत्रीय सीमा

2. संलग्न क्षेत्र /अविच्छिन्न क्षेत्र

3. अनन्य आर्थिक क्षेत्र 


प्रादेशिक समुद्री सीमा / क्षेत्रीय सीमा:-

आधार रेखा से 12 समुद्री मील तक के क्षेत्र  को प्रादेशिक समुद्री सीमा कहते हैं। इसकी संपूर्ण संसाधन के दोहन का अधिकार भारत को प्राप्त है।

संलग्न क्षेत्र /अविच्छिन्न क्षेत्र:-

आधार रेखा से 24 समुद्री मील तक के क्षेत्र को संलग्न क्षेत्र  या अविच्छिन्न मंडल कहते हैं। इसके अंतर्गत सीमा शुल्क लेने का एक वित्तीय अधिकार भारत को प्राप्त है।

अनन्य आर्थिक क्षेत्र:-

आधार रेखा से 200 समुद्री मील तक के क्षेत्र को अनन्य आर्थिक क्षेत्र कहते हैं। इसके अंतर्गत भारत 200 समुद्री मील तक नए द्वीपों का निर्माण, वैज्ञानिक अनुसंधान इत्यादि का अधिकार भारत को प्राप्त है।



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